डोडिया वंश की उत्पत्ति कदलीवृक्ष के डोडे (पुष्प)से एक साहसी वीर क्षत्रिय पुरूष दीपंग का जन्म हुआ । केले के डोडे पुष्पकली से उत्पन्न होने के कारण दीपंग का वंश डोडिया कहलाया । दीपंग का साम्राज्य विस्तार सौराष्ट्र हिंगलाज काठियिवाड एवं समुद्र तक था ।दीपंग की राजधानी मुल्तान थी ।
रविवार, 31 दिसंबर 2017
Kumbhalgarh Fort Story & History in Hindi : आपने ” The Great Wall Of China ” के बारे में तो सुना ही होगा जो कि विशव कि सबसे बड़ी दीवार है पर क्या आपने विशव कि दूसरी सबसे लम्बी दीवार के बारे में सुना है जो कि भारत में स्थित है? यह है राजस्थान के राजसमंद जिले में स्थित कुम्भलगढ़ फोर्ट कि दीवार जो कि 36 किलोमीटर लम्बी तथा 15 फीट चौड़ी है। इस फोर्ट का निर्माण महाराणा कुम्भा ने करवाया था। यह दुर्ग समुद्रतल से करीब 1100 मीटर कि ऊचाईं पर स्थित है। इसका निर्माण सम्राट अशोक के दूसरे पुत्र सम्प्रति के बनाए दुर्ग के अवशेषो पर किया गया था। इस दुर्ग के पूर्ण निर्माण में 15 साल (1443-1458) लगे थे। दुर्ग का निर्माण पूर्ण होने पर महाराणा कुम्भ ने सिक्के बनवाये थे जिन पर दुर्ग और इसका नाम अंकित था।
दुर्ग कई घाटियों व पहाड़ियों को मिला कर बनाया गया है जिससे यह प्राकृतिक सुरक्षात्मक आधार पाकर अजेय रहा। इस दुर्ग में ऊँचे स्थानों पर महल,मंदिर व आवासीय इमारते बनायीं गई और समतल भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए किया गया वही ढलान वाले भागो का उपयोग जलाशयों के लिए कर इस दुर्ग को यथासंभव स्वाबलंबी बनाया गया। इस दुर्ग के अंदर 360 से ज्यादा मंदिर हैं जिनमे से 300 प्राचीन जैन मंदिर तथा बाकि हिन्दू मंदिर हैं।
इस दुर्ग के भीतर एक औरगढ़ है जिसे कटारगढ़ के नाम से जाना जाता है यह गढ़ सात विशाल द्वारों व सुद्रढ़ प्राचीरों से सुरक्षित है। इस गढ़ के शीर्ष भाग में बादल महल है व कुम्भा महल सबसे ऊपर है। महाराणा प्रताप की जन्म स्थली कुम्भलगढ़ एक तरह से मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है। महाराणा कुम्भा से लेकर महाराणा राज सिंह के समय तक मेवाड़ पर हुए आक्रमणों के समय राजपरिवार इसी दुर्ग में रहा। यहीं पर पृथ्वीराज और महाराणा सांगा का बचपन बीता था। महाराणा उदय सिंह को भी पन्ना धाय ने इसी दुर्ग में छिपा कर पालन पोषण किया था। हल्दी घाटी के युद्ध में हार के बाद महाराणा प्रताप भी काफी समय तक इसी दुर्ग में रहे।
इसके निर्माण कि कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। 1443 में राणा कुम्भा ने इसका निर्माण शुरू करवाया पर निर्माण कार्य आगे नहीं बढ़ पाया, निर्माण कार्य में बहुत अड़चने आने लगी। राजा इस बात पर चिंतित हो गए और एक संत को बुलाया। संत ने बताया यह काम तभी आगे बढ़ेगा जब स्वेच्छा से कोई मानव बलि के लिए खुद को प्रस्तुत करे। राजा इस बात से चिंतित होकर सोचने लगे कि आखिर कौन इसके लिए आगे आएगा। तभी संत ने कहा कि वह खुद बलिदान के लिए तैयार है और इसके लिए राजा से आज्ञा मांगी।
संत ने कहा कि उसे पहाड़ी पर चलने दिया जाए और जहां वो रुके वहीं उसे मार दिया जाए और वहां एक देवी का मंदिर बनाया जाए। ठिक ऐसा ही हुआ और वह 36 किलोमीटर तक चलने के बाद रुक गया और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। जहां पर उसका सिर गिरा वहां मुख्य द्वार “हनुमान पोल ” है और जहां पर उसका शरीर गिरा वहां दूसरा मुठख्य द्वार है।
दुर्ग कई घाटियों व पहाड़ियों को मिला कर बनाया गया है जिससे यह प्राकृतिक सुरक्षात्मक आधार पाकर अजेय रहा। इस दुर्ग में ऊँचे स्थानों पर महल,मंदिर व आवासीय इमारते बनायीं गई और समतल भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए किया गया वही ढलान वाले भागो का उपयोग जलाशयों के लिए कर इस दुर्ग को यथासंभव स्वाबलंबी बनाया गया। इस दुर्ग के अंदर 360 से ज्यादा मंदिर हैं जिनमे से 300 प्राचीन जैन मंदिर तथा बाकि हिन्दू मंदिर हैं।
इस दुर्ग के भीतर एक औरगढ़ है जिसे कटारगढ़ के नाम से जाना जाता है यह गढ़ सात विशाल द्वारों व सुद्रढ़ प्राचीरों से सुरक्षित है। इस गढ़ के शीर्ष भाग में बादल महल है व कुम्भा महल सबसे ऊपर है। महाराणा प्रताप की जन्म स्थली कुम्भलगढ़ एक तरह से मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है। महाराणा कुम्भा से लेकर महाराणा राज सिंह के समय तक मेवाड़ पर हुए आक्रमणों के समय राजपरिवार इसी दुर्ग में रहा। यहीं पर पृथ्वीराज और महाराणा सांगा का बचपन बीता था। महाराणा उदय सिंह को भी पन्ना धाय ने इसी दुर्ग में छिपा कर पालन पोषण किया था। हल्दी घाटी के युद्ध में हार के बाद महाराणा प्रताप भी काफी समय तक इसी दुर्ग में रहे।
इसके निर्माण कि कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। 1443 में राणा कुम्भा ने इसका निर्माण शुरू करवाया पर निर्माण कार्य आगे नहीं बढ़ पाया, निर्माण कार्य में बहुत अड़चने आने लगी। राजा इस बात पर चिंतित हो गए और एक संत को बुलाया। संत ने बताया यह काम तभी आगे बढ़ेगा जब स्वेच्छा से कोई मानव बलि के लिए खुद को प्रस्तुत करे। राजा इस बात से चिंतित होकर सोचने लगे कि आखिर कौन इसके लिए आगे आएगा। तभी संत ने कहा कि वह खुद बलिदान के लिए तैयार है और इसके लिए राजा से आज्ञा मांगी।
संत ने कहा कि उसे पहाड़ी पर चलने दिया जाए और जहां वो रुके वहीं उसे मार दिया जाए और वहां एक देवी का मंदिर बनाया जाए। ठिक ऐसा ही हुआ और वह 36 किलोमीटर तक चलने के बाद रुक गया और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। जहां पर उसका सिर गिरा वहां मुख्य द्वार “हनुमान पोल ” है और जहां पर उसका शरीर गिरा वहां दूसरा मुठख्य द्वार है।
मेवाड़ का राजवंश* राजवंश की प्राचीनता, गौरव और राजचिन्ह
01=जनवरी =2018
Written by jashwant Singh Dodia tikana-kotela
मेवाड़ राजवंश की प्राचीनता
उदयपुर(मेवाड़) राज्य का इतिहास स्वतंत्रता का इतिहास है और राजपूताने के सम्पूर्ण इतिहास में मेवाड़(उदयपुर) के सिसोदिया राजवंश का इतिहास ही सबसे अधिक गौरवपूर्ण है। इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि मेवाड़ के इतिहास को गौरवमय बनाने में मेवाड़ के वीर सपूतों तथा यहां के जागीरदारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने इस वीर भूमि की रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देकर स्वामिभक्ति एवं कर्तव्य परायणता का उत्कृष्ट परिचय दिया। ऐसे गौरवशाली इतिहास के बारे में पढ़ना गौरव की बात है।
वीर प्रसूता मेवाड की धरा राजपूती प्रतिष्ठा, मर्यादा एवं गौरव का प्रतीक तथा सम्बल है। राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी अंचल का यह राज्य अधिकांशतः अरावली की अभेद्य पर्वत श्रृंखला से परिवेष्टिता है। उपत्यकाओं के परकोटे सामरिक दृष्टिकोण से अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। मेवाड अपनी समृद्धि, परम्परा, अधभूत शौर्य एवं अनूठी कलात्मक अनुदानों के कारण संसार के परिदृश्य में देदीप्यमान है। स्वाधिनता एवं भारतीय संस्कृति की अभिरक्षा के लिए इस वंश ने जो अनुपम त्याग और अपूर्व बलिदान दिये सदा स्मरण किये जाते रहेंगे।
उदयपुर का सिसोदिया राजवंश पद-प्रतिष्ठा में हिन्दुस्तान के सब राजपूत राजाओं में शिरोमणि और बड़ा है। समस्त हिन्दू जिन्हें ईश्ववर का अवतार मानते है सूर्यवंशी मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र, मेवाड़ राजवंश इन्ही के वंशज है। श्रीराम के ज्येष्ठ पुत्र कुश के वंश में उदयपुर राजवंश का होना माना जाता है। कुश के वंश में विक्रम संवत 625(ई० सन 568) के आस पास मेवाड़ में गुहिल नाम के प्रतापी राजा हुए, जिनके नाम से उनका वंश गुहिल वंश कहलाया। बाद में इस वंश की एक शाखा सिसोदा गांव में रही, जिससे इस शाखावाले उस गांव के नाम पर सिसोदिया कहलाये। इस सिसोदिया की राणा शाखा के वंशज मेवाड़ के महाराणा है।
राजस्थान को पूर्व में राजपुताना के नाम से जाना जाता था जिसका अर्थ है राजाओं का स्थान और सामन्यतया राजपूत, राजपुत्र समझे जाते है, जिसका अभिप्राय है कि अंततोगत्वा सभी राजपूत, कोई दो हजार वर्ष पूर्व स्थापित राजवंशो में से किसी एक से है।
मेवाड़ के राजाओं का खानदान पहले सूर्यवंशी, फिर गुहिलपुत्र और गुहिलोत और उसके बाद सिसोदिया के नाम से प्रसिद्ध रहा है। मेवाड़ का राजवंश विक्रम सम्वत 625(ई० सन 568) से लगातार स्वतंत्र भारत में राज्यो के विलय होने तक लगातार एक ही प्रदेश पर राज्य करता रहा। गत 1400 वर्षो में हिन्दुस्तान के एक ही प्रदेश पर राज्य करने वाला संसार भर में दूसरा कोई अन्य राजवंश शायद ही विधमान हो।
राजवंश का गौरव
मेवाड़ का राजवंश गौरव में सूर्यवंशियों में भी सर्वोपरि माना जाता है और भारत के सभी राजपूत राजाओं में मेवाड़ के महाराणाओं को शिरोमणि माना गया है। इसका मुख्य कारण उनकी स्वतंत्रप्रियता और अपने धर्म पर दृढ़ रहना है। गत 1400 वर्षो में हिन्दुस्तान में कई प्राचीन राज्य लुप्त हो गए और अनेक नये स्थापित हुए। सैकड़ो हिन्दू राजाओं ने मुसलमानों के राज्य की प्रबल शक्ति के आगे सर झुकाकर अपनी वंश परम्परा की मान-मर्यादा को उसके चरणोमे समर्पित कर दिया, परन्तु एक मेवाड़(उदयपुर) का ही राजवंश, जो संसार के समस्त राजवंशो में सबसे प्राचीन है, अनेक प्रकार के कष्ट और आपत्तियां सहकर भी कभी साहस नही ख़ोया। वे अपनी मान-मर्यादा, कुल गौरव, स्वतंत्रप्रियता और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए सांसारिक सुख-सम्पति ऐश्वर्य को त्यागकर भी अनवरत जूझते रहे। इसी कारण मेवाड़ के महाराणाओं को
हिन्दुआ सूरज
कहते है।
इस राज घराने ने कभी किसी मुसलमान बादशाह को लड़की(अपनी बहन, बेटी) की शादी नहीं कराई और कई वर्षों तक उन राजपूतो के साथ शादी व्यवहार छोड़ दिया, जिन्होंने बादशाहो को लड़की दी थी। मेवाड़ का खानदान भगवान श्रीराम के बड़े बेटे कुश के वंशज है इसलिये हिन्दुस्तान के सभी हिन्दू राजाओं में बड़ा गिना जाता है। मेवाड़ के वीर अपने देश, जाती, आदर्श और अपने कुल मर्यादा की रक्षा के लिये अपने प्राणों की आहुति देने में सदैव अग्रणी रहे।
सिसोदिया राजवंश में महाराणा कुम्भा, राणा सांगा एवं वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जैसे महान योद्धाओं के नाम राजपूताने के इतिहास में सबसे अधिक महत्वपूर्ण और गौरवशाली रहे है। मेवाड़ के इतिहास् को उज्जवल और गौरवमय बनाने का अधिक श्रेय इन्ही को है। स्वदेश प्रेम, स्वतंत्रता और कुलाभिमान उनके मूलमंत्र थे। उन्हें अपने वीर पूर्वजो के गौरव का गर्व था। उनका आदर्श था, कि बप्पा रावल का वंशज किसी के आगे सिर नहीं झुकायेगा।
मेवाड़ राज्य का पुराना झण्डा लाल कपड़े का था और उस पर महावीर हनुमान का चिन्ह अंकित था परंतु जो रेशमी झण्डा महारानी विक्टोरिया के भारत राजराजेश्वरी(साम्रागी) पदवी ग्रहण करते समय वि.स्. 1933 की पोषसुदी 12 गुरुवार(ई. सन 1876 तारीख 28 दिसम्बर) के दिल्ली दरबार में अंग्रेज सरकार से भेंट रूप में मिला है। उसके बिच में सूर्य की मूर्ति है क्योंकि उदयपुर मेवाड़ के आर्यवंश दिवाकर छतिस राजकुल श्रंगार महाराणा साहब अपने को सूर्यवंशी मानते है। सूर्य के दाहिनीं तरफ जिरह बख्तर पहिने झेलम टॉप लगाये और शस्त्र बांधे हुए एक राजपूत खड़ा है और बाँयी तरफ नग धड़ंग एक भील वीर का चित्र है। इससे ज्ञात होता है कि इस राज्य की रक्षा आदिम निवासी भीलो और राजपूतो से हुई है। इसके नीचे एक पंक्ति में राज्य के शासन का मोटो यानि आदर्श इन अक्षरों में चित्रित है।
01=जनवरी =2018
Written by jashwant Singh Dodia tikana-kotela
मेवाड़ राजवंश की प्राचीनता
उदयपुर(मेवाड़) राज्य का इतिहास स्वतंत्रता का इतिहास है और राजपूताने के सम्पूर्ण इतिहास में मेवाड़(उदयपुर) के सिसोदिया राजवंश का इतिहास ही सबसे अधिक गौरवपूर्ण है। इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि मेवाड़ के इतिहास को गौरवमय बनाने में मेवाड़ के वीर सपूतों तथा यहां के जागीरदारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने इस वीर भूमि की रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देकर स्वामिभक्ति एवं कर्तव्य परायणता का उत्कृष्ट परिचय दिया। ऐसे गौरवशाली इतिहास के बारे में पढ़ना गौरव की बात है।
वीर प्रसूता मेवाड की धरा राजपूती प्रतिष्ठा, मर्यादा एवं गौरव का प्रतीक तथा सम्बल है। राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी अंचल का यह राज्य अधिकांशतः अरावली की अभेद्य पर्वत श्रृंखला से परिवेष्टिता है। उपत्यकाओं के परकोटे सामरिक दृष्टिकोण से अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। मेवाड अपनी समृद्धि, परम्परा, अधभूत शौर्य एवं अनूठी कलात्मक अनुदानों के कारण संसार के परिदृश्य में देदीप्यमान है। स्वाधिनता एवं भारतीय संस्कृति की अभिरक्षा के लिए इस वंश ने जो अनुपम त्याग और अपूर्व बलिदान दिये सदा स्मरण किये जाते रहेंगे।
उदयपुर का सिसोदिया राजवंश पद-प्रतिष्ठा में हिन्दुस्तान के सब राजपूत राजाओं में शिरोमणि और बड़ा है। समस्त हिन्दू जिन्हें ईश्ववर का अवतार मानते है सूर्यवंशी मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र, मेवाड़ राजवंश इन्ही के वंशज है। श्रीराम के ज्येष्ठ पुत्र कुश के वंश में उदयपुर राजवंश का होना माना जाता है। कुश के वंश में विक्रम संवत 625(ई० सन 568) के आस पास मेवाड़ में गुहिल नाम के प्रतापी राजा हुए, जिनके नाम से उनका वंश गुहिल वंश कहलाया। बाद में इस वंश की एक शाखा सिसोदा गांव में रही, जिससे इस शाखावाले उस गांव के नाम पर सिसोदिया कहलाये। इस सिसोदिया की राणा शाखा के वंशज मेवाड़ के महाराणा है।
राजस्थान को पूर्व में राजपुताना के नाम से जाना जाता था जिसका अर्थ है राजाओं का स्थान और सामन्यतया राजपूत, राजपुत्र समझे जाते है, जिसका अभिप्राय है कि अंततोगत्वा सभी राजपूत, कोई दो हजार वर्ष पूर्व स्थापित राजवंशो में से किसी एक से है।
मेवाड़ के राजाओं का खानदान पहले सूर्यवंशी, फिर गुहिलपुत्र और गुहिलोत और उसके बाद सिसोदिया के नाम से प्रसिद्ध रहा है। मेवाड़ का राजवंश विक्रम सम्वत 625(ई० सन 568) से लगातार स्वतंत्र भारत में राज्यो के विलय होने तक लगातार एक ही प्रदेश पर राज्य करता रहा। गत 1400 वर्षो में हिन्दुस्तान के एक ही प्रदेश पर राज्य करने वाला संसार भर में दूसरा कोई अन्य राजवंश शायद ही विधमान हो।
राजवंश का गौरव
मेवाड़ का राजवंश गौरव में सूर्यवंशियों में भी सर्वोपरि माना जाता है और भारत के सभी राजपूत राजाओं में मेवाड़ के महाराणाओं को शिरोमणि माना गया है। इसका मुख्य कारण उनकी स्वतंत्रप्रियता और अपने धर्म पर दृढ़ रहना है। गत 1400 वर्षो में हिन्दुस्तान में कई प्राचीन राज्य लुप्त हो गए और अनेक नये स्थापित हुए। सैकड़ो हिन्दू राजाओं ने मुसलमानों के राज्य की प्रबल शक्ति के आगे सर झुकाकर अपनी वंश परम्परा की मान-मर्यादा को उसके चरणोमे समर्पित कर दिया, परन्तु एक मेवाड़(उदयपुर) का ही राजवंश, जो संसार के समस्त राजवंशो में सबसे प्राचीन है, अनेक प्रकार के कष्ट और आपत्तियां सहकर भी कभी साहस नही ख़ोया। वे अपनी मान-मर्यादा, कुल गौरव, स्वतंत्रप्रियता और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए सांसारिक सुख-सम्पति ऐश्वर्य को त्यागकर भी अनवरत जूझते रहे। इसी कारण मेवाड़ के महाराणाओं को
हिन्दुआ सूरज
कहते है।
इस राज घराने ने कभी किसी मुसलमान बादशाह को लड़की(अपनी बहन, बेटी) की शादी नहीं कराई और कई वर्षों तक उन राजपूतो के साथ शादी व्यवहार छोड़ दिया, जिन्होंने बादशाहो को लड़की दी थी। मेवाड़ का खानदान भगवान श्रीराम के बड़े बेटे कुश के वंशज है इसलिये हिन्दुस्तान के सभी हिन्दू राजाओं में बड़ा गिना जाता है। मेवाड़ के वीर अपने देश, जाती, आदर्श और अपने कुल मर्यादा की रक्षा के लिये अपने प्राणों की आहुति देने में सदैव अग्रणी रहे।
सिसोदिया राजवंश में महाराणा कुम्भा, राणा सांगा एवं वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जैसे महान योद्धाओं के नाम राजपूताने के इतिहास में सबसे अधिक महत्वपूर्ण और गौरवशाली रहे है। मेवाड़ के इतिहास् को उज्जवल और गौरवमय बनाने का अधिक श्रेय इन्ही को है। स्वदेश प्रेम, स्वतंत्रता और कुलाभिमान उनके मूलमंत्र थे। उन्हें अपने वीर पूर्वजो के गौरव का गर्व था। उनका आदर्श था, कि बप्पा रावल का वंशज किसी के आगे सिर नहीं झुकायेगा।
मेवाड़ राज्य का पुराना झण्डा लाल कपड़े का था और उस पर महावीर हनुमान का चिन्ह अंकित था परंतु जो रेशमी झण्डा महारानी विक्टोरिया के भारत राजराजेश्वरी(साम्रागी) पदवी ग्रहण करते समय वि.स्. 1933 की पोषसुदी 12 गुरुवार(ई. सन 1876 तारीख 28 दिसम्बर) के दिल्ली दरबार में अंग्रेज सरकार से भेंट रूप में मिला है। उसके बिच में सूर्य की मूर्ति है क्योंकि उदयपुर मेवाड़ के आर्यवंश दिवाकर छतिस राजकुल श्रंगार महाराणा साहब अपने को सूर्यवंशी मानते है। सूर्य के दाहिनीं तरफ जिरह बख्तर पहिने झेलम टॉप लगाये और शस्त्र बांधे हुए एक राजपूत खड़ा है और बाँयी तरफ नग धड़ंग एक भील वीर का चित्र है। इससे ज्ञात होता है कि इस राज्य की रक्षा आदिम निवासी भीलो और राजपूतो से हुई है। इसके नीचे एक पंक्ति में राज्य के शासन का मोटो यानि आदर्श इन अक्षरों में चित्रित है।
जशवन्त सिंह डोडिया ठिकाना-कोटेला
🚩(जय एकपन्या बावजी)🚩
➡एकपन्या बावजी मंदिर गाँव कोटेला में स्थित है । यह मंदिरआसपास के क्षेत्र में प्रसिद्धहै ।एकपन्या बावजी
का मन्दिर रविवार के दिन
खुलता है ।रविवार के दिन
कई भक्त भेरू जी के
दर्शन करने के लिए आते है ।
➡सेवा चडाने का समय
रविवार सुबह 9:30 am
➡भाव का समय रविवार
शाम 4:30 बजे
➡विशेष आयोजन =(1)=
3 से 10 वर्ष के अन्दर
जग महोत्सव कार्यक्रम
होता है। जिसमे अनगिनत
भक्त आते है । कई बाहर
अन्य राज्यो में अपनी
जिविका चला रहै, भक्त
भी इस जग महोत्सव का
हिस्सा बनते है । यह कार्यक्रम एकपन्या बावजी के यहा
बहुत बड़ा कार्यक्रम है ।
➡(2 ) दुसरा सबसे बड़ा
कार्यक्रम नवरात्रा है ।
प्रतिवर्ष आसोज बदी 30 (देवकार्ये अमावस्या) से
आसोज सुदी 8 (अष्टमी तक)
ईन नो दिन तक भक्त व्रत
पुजन करते है । नवरात्रा मे आरती का समय शाम 8pm
सुबह 4:30am
नवरात्रा मे मंदिर
दिन व रात दोनो
समय खूला रहता है ।
नवरात्रा के अन्तिम दिन
(अष्टमी ) को बहुत बड़ी
प्रसादी होती है ।जिसमे कई
गांव के लोग प्रसाद ग्रहण
करने के लिए आते है ।
विशेष रसोई मालबा व दाल
बनाई जाती है।
➡यहा पर कई भक्त भेरू जी के मंदिर का निर्माण कार्य करवा
रहै है । जैसे दरवाजा चबूतरे मंदिर मे काच जोडवाना टयूवेल खूदवाना लाईट जोडाना व अन्य छोटी बड़ी जरूरत की आवश्यकता मे सहयोग कर रहै
है ।
➡गोल विटी का प्रोग्राम कई
स्त्री व पुरुष एकपन्या बावजी
के नाम की गोल विटी पहनते
है , एव प्रसादी करते है।
➡यहा पर भादपा महीने मे
षट को झागन व सातम को
भाव ।माघ की षट को झागन
व सातम को भाव ।
➡जब एकपन्या बावजी के भक्तो के मन की इच्छा पुर्ण हो जाती है, तो खुशी से प्रसादी कार्यक्रम किया जाता है ।
➡एकपन्या बावजी को मानने वाले कथा कार्यक्रम भी करवाते है
➡पुरा एड्रेस गाँव कोटेला पाॅस्ट बागोल तहसील नाथद्वारा
जिला राजसमंद राज्य
राजस्थान देश भारत
➡मेरा नाम जशवंत सिंह
डोडिया
📞मोबाइल नंबर 9950555091
मेँवाड़"
राव भीमसिँह डोडिया सरदारगढ
भीमसिंह डोडिया के पुर्वजो का मेवाड से सम्बन्ध कब आया इसके बारे मे कहा जाता हे की महाराणा लाखा की माँ द्वारिका की याञा गई उस समय काठियावाड मे लुटेरो ने घेर लिया तब शार्दुलगढ के राव सिँह डोडिया अपने पुञो कालु व धवल ने राजमाता कि रक्षा कि तब महाराणा लाखा ने डोडिया धवल को बुलाकर और रतनगढ नन्दराय और मसुदा आदि पाँच लाख कि जागीर देकर अपना उमराव बनाया तब से धवल के वंशज सरदारगढ(लावा) ठिकाना के सरदार है
सरदारगढ के डोडिया राजपूतो की लगातार 9 पिढी़यो ने मेवाड़ के युध्दो मे अपने प्राणो की आहुती दी.. और हमेसा महाराणाओ के विश्वास पात्र सामंत बने रहे.. अन्य सामंतो का महाराणाओ से मनमुटाव होता रहा लेकिन डोडिया सामंतो का महाराणाओ से कभी भी मनमुटाव नही हुआ... इस तरह महाराणा जगत सिंह ने सरदारगढ के डोडिया राजपूतो को मेवाड के प्रथम श्रेणी के उमरावो मे स्थान दिया
राव भीम सिंह अपनी कुमारावस्था मे ही मेवाड की सेना मे सक्रिय था अपने पुर्वजो की तरह भीम सिँह भी साहसी, पराक्रमी ओर जान पर खेलने वाला योध्दा था किसी भी चुनौती का सामने करने मे उसे आनन्द का अनुभव होता था
महाराणा उदयसिँह के समय हाजी खां के विरुध्द युध्द मे भीमसिँह अग्रिम पंक्ति मे लडने वाले योध्दाओ मेँ से एक था भीमसिँह ने अपनी कौमार्यवस्था मे हाजी खां के हाथी के शरीर मे बरछी आर पार कर दी थी और हाजी खां को घायल कर दिया
महाराणा प्रताप के समय जब संधि वार्ता प्रारम्भ हो रही थी तब प्रताप ने मानसिँह को ससम्मान लाने के लिये भीम सिँह को गुजरात भेजा था प्रताप को उसकी वाकपटुता पर विश्वास था,
उदय सागर की पाल पर कुँवर अमरसिँह व मानसिह के मध्य वार्ता हो रही थी तब भीमसिह भी वही था, जब मानसिँह ने संधि को स्वीकार न किया ओर मेवाड के प्रति कठोर वचनो का प्रयोग किया
तो भीमसिँह ने विनम्र किन्तु उग्र शब्दो मे उतर देते हूये कहा कि "यदि मानसिंह मेवाड से निपटना ही चाहता हे तो उसके साथ दो दो हाथ अवश्य होगे यदि अपने ही बलबुले पर आक्रमण करने आया तो मेवाड मे जहाँ कही उचित अवसर मिलेगा उसका यथोचित स्वागत किया जायेगा, हल्दीघाटी के युध्द मे ऐसा ही हुआ भीमसिह सेना के अग्रभाग(हरावल) मे था भीमसिँह जब युध्द करता हुआ मानसिंह के सामने आया तब भीम ने कहा की उस दिन जो बोल बोले थे वह अवसर आ गया हे तब भीमसिँह ने अपना घोडा शीघ्रता से मानसिँह के हाथी पे चढा दिया ओर अपने भाले से मानसिँह पर वार किया लेकिन भाला होँदे मे लग गया मान बच गया महाराणा कि रक्षा करने मे भीमसिँह डोडिया वीरगति को प्राप्त हुआ भीम ने मानसिँह पर ऐसे प्रहार किये जिसका वर्णन आमेर के साहित्य तथा अकबर के इतिहासकारो ने भी किया इस युध्द मे उसका भाई ओर उसके दो पुञ हम्मीर व गोविन्द भी वीरगति को प्राप्त हुयेँ, जय मेवाड़
जय राजपुताना
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