🌎 डोडिया राजपूत 🌎
मेवाड़ के इतिहास में सरदारगढ़ ठिकाने के सामन्तो की प्रमुख भूमिका रही है। सरदारगढ़ के स्वामी काठियावाड़ स्थित शार्दुलगढ के सिंह डोडिया के वंशज एवं ठाकुर इनकी पदवी थी मेवाड़ के वैदेशिक सरदार जो अन्य प्रदेशों से महाराणा की सेवा मे आये थे, उनमें डोडिया वंश सबसे प्राचीन राजवंश था ।
🌱डोडिया वंश की उत्पत्ति🌱
एक प्राचीन मान्यतानुसार परशुराम द्वारा क्षत्रिय जाति का समूल नाश किये जाने के पश्चात पृथ्वी पर कोई वीर जाति शेष नहीं रही, जो वैदिक धर्म की रक्षा कर सके । चिन्तित ऋषि मुनियों ने क्षत्रिय वर्ण की पुर्नस्थापना के लिये एकत्रित होकर यज्ञ का आयोजन किया । तदनुसार शांडिल्य ऋषि ने यज्ञवेदी के चारो ओर कदली-स्तम्भ रोपकर यज्ञ सम्पूर्ण किया । इस प्रकार रोपे गये कदलीवृक्ष के डोडे (पुष्प)से एक साहसी वीर क्षत्रिय पुरूष का जन्म हुआ । उस पुरूष का नाम दीपंग रखा गया ।केले के डोडे (पुष्पकली)से उत्पन्न होने के के कारण कालान्तर में उसका वंश डोडिया कहलाया ।दीपंग विशिल साम्राज्य का स्वामी हुआ , जिसके राज्य का विस्तार सौराष्ट्र हिंगलाज काठियिवाड एवं समुद्र तक था ।मुल्तान उसके राज्य कि राजधिनी थी ।वृध्दावसाथा मे दीपंग अपने पुत्र पहकरण को राज्य सौंपकर स्वय भगवदशरण में बद्रिकाश्रम चला गया ।कालान्तर में उसके वंशज पदमसिंह के आधिपत्य से मुल्तान छीन जाने के बाद गुजरात काठियावाड में गिरनार जैतगढ़ तथा शार्दुलगढ उनकी राजधानीयाँ रही । अंत में शार्दुलगढ डोडिया वंश की प्रमुख राजधानी रही ।
शार्दुलगढ का दुर्ग अत्यंत सुदृढ तथा सुरक्षित दुर्ग था , जिसका रक्षक बेचरा माता को माना गया है ।मान्यता है कि वह यवनो के आक्रमण होने पर उनका सर्वनाश कर देती थी ।डोडिया वंश की सौगात एव मेवाड़ की सांस्कृतिक धरोहर शार्दुलगढ के राव जसकरन ने रावल को एक तलवार भेंट की स्वय बेचरा माता ने प्रसाद स्वरूप प्रदान की थी ।
इसी तलवार के प्रभाव से महाराणा हम्मीर सिंह ने चित्तौड़ राज्य पुनर्विजित किया तथा महाराणा प्रताप ने मुगलों से दीर्घकालीन संघर्ष कर उन पर विजय प्राप्त की।प्रतिवर्ष आश्विन शुक्ला अष्टमी पर्यन्त नवरात्रि के दौरान इस तलवार का विधि विधान से पुजन किये जाने के पश्चात राज्य द्वारा नियुक्त सरदार राजमहल के अमरचौक में इसी तलवार से बकरे की बली तथा जनानी ड्योढ़ी के बाहर भैंस की बलि करता था ।
वर्तमान मे भी नवरात्रि के दौरान राजमहल मे इसी तलवार का पूजन विधि -विधान से किया जाता है । डोडिया शासक द्वारा प्रदत यह तलवार आज भी मेवाड़ की सांस्कृतिक धरोहर है ।
⬛डोडिया वंश एंव मेवाड़ के महाराणाः⬛
राणालाखा के शासनकाल (1382-1418 ई,)मे महाराणा की माता सोलंकिनी द्वारिका यात्रा पर गयी ,उस दौरान मार्ग मे काबा लुटेरो ने मेवाड़ के रक्षादल पर आक्रमण किया तब शार्दुलगढ के राव जसकरन का वंशज सिंह डोडिया अपने पुत्रों कालू और धवल ने अपने ठिकाने शार्दुलगढ मे राजमाता का आतिथ्य -सत्कार तथा युद्ध में घायल सैनिको का इलाज करवाया । ततपश्वात राजमाता को द्वारिका यात्रा करवाकर डोडिया पुत्रों ने उन्हे मेवाड़ की सिमा तक सुरक्षित पहुँचाया । चित्तौड़ लौटकर राजमाता ने राणा लाखा को इस घटना की जानकारी दी, तदनुसार महाराणा ने धवल डोडिया को अपने राज्य मे बुलवाकर उसे रतनगढ नन्दराय ओर मसुदा सहित पांच लाख की जागीर देकर 1387 ई मे अपना सामन्त बनाया ।महाराणा ने धवल को राजमाता सोलंकिनी की ,गया, यात्रा के दौरान भी उनके साथ भेजा ।
महाराणा मोकल (1418-1433 ई)ओर नागौर के हाकिम फिरोज खां के मध्य जोताई ग्राम मे युद्ध हुआ , इस युद्ध मे महाराणा का घोड़ा मारा गया ।यहदेखकर धवल डोडिया का पौत्र सबल सिंह ने तुरंत अपना घोड़ा महाराणा की सेवा मे पेश किया ।तथा स्वयं शत्रुओ से लड़ता हुआ मारा गया ।
मांडू के सुल्तान गयासुदिन के सेनानायक जफर खां से महाराणा रायमल (1473-1509 ई) का युद्ध हुआ इस युद्ध मे धवल का प्रपौत्र किशन सिंह बडी बहादुरी से लडा महाराणा विक्रमादित्य के शासनकाल मे चित्तौड़ के व्दितीय शाके (1531-1536 ई)मे गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह की चढ़ाई के दौरान किशनसिंह पौत्र भाण सुल्तान के विरूद्ध लडते हुए शहीद हो गया ।1557ई मे शेरशाह सुरी के के सेनापति हाजीखां पठान और राव मालदेव की संयुक्त सेना महाराणा उदयसिंह से युद्ध हुआ, इस युद्ध मे भाण का पुत्र भीम घायल हुआ ।चित्तौड़ पर अकबर की चढ़ाई 1557 ई के दौरान मेवाड़ के सरदारो ने भाण के पुत्र सांडा और रावत साहिबखान के माध्यम से संधिवार्ता की जो असफल रही , किन्तु जब युध्द प्रारंभ हुआ तो सांडा गम्भीरी नदी के पश्चिमी तट पर शाही सेना से बडी बहादुरी से लड़कर मारा गया ।
सांडा का उत्तराधिकारी भीम सिंह डोडिया प्रसिद्ध हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप के प्रमुख सहयोगी के रुप में मानसिंह के हाथी को मारकर वीरगति को प्राप्त हुआ।
महाराणा अमर सिंह और शहजादे खुर्रम के मध्य हुए संघर्ष में भीमसिंह के पौत्र जयसिंह ने वीरता का प्रदर्शन किया।
महाराणा जगत सिंह द्वितीय 1734 - 1751 ई, ने जयसिंह के प्रपौत्र सरदार सिंह को लावा ठिकाने की जहांगीर प्रदान की उसने लावे में दुर्ग का निर्माण करवाकर उसका नाम सरदारगढ़ रखा सरदार सिंह महाराणा जगत सिंह द्वितीय का विश्वास पात्र व्यक्ति था महाराणा ने पिछोला झील के मध्य निवास महल निर्माण की देखरेख पर सरदार सिंह को नियुक्त किया जिसे सरदार सिंह ने 35 माह में कुशलता से संपन्न किया 1746 ईस्वी में जगनिवास के प्रतिष्ठा मुहूर्त पर महाराणा ने उसे सिरोपाव आदि प्रदान कर सम्मानित किया जग निवास महल निर्माण की अवशिष्ट बची हुई सामग्री से सरदार सिंह ने पिछोला के दूसरे किनारे पर सरदारगढ की हवेली का निर्माण करवाया महाराणा भीमसिंह के शासनकाल 1778 1828 में लाल सिंह शक्तावत के पुत्र संग्राम सिंह ने लावासरदारगढ पर अधिकार कर सरदार सिंह के उत्तराधिकारी सामंत सिंह को बेदखल कर दिया तत्पश्चात महाराणा स्वरूप सिंह ने सामंत सिंह के पुत्र जोरावर सिंह की सेवा से प्रसन्न होकर 1855 ई में सरदारगढ पर उसका अधिकार करवाकर उसे द्वितीय श्रेणी का सरदार बनाया जोरावर सिंह का उत्तराधिकारी मनोहर सिंह
डोडिया हुआ । महाराणा शंभूसिंह (1861-1874ई,)की अवयस्कता के दौरान शक्तावत , चत्रसिंह के सरदारगढ पर दावे के विषय मे रीजेन्सी कौंसिल ने निर्णय दिया कि लावा सरदारगढ पुनः शक्तावतों को दे दिया जाए ।ठाकुर मनोहर सिंह ने इस निर्णय के विरुद्ध ए,जी, जी के पास अपिल कर ठिकाना छोड़ने से इन्कार कर दिया । तदनुसार ए.जी.जी.ने कौंसिल का निर्णय रद कर सरदारगढ पर मनोहर सिंह के अधिकार को बहाल रखा। महाराणा सज्जनसिंह के
शासनकाल 1874-1884 ई इजलासखास कायम होने पर महाराणा ने मनोहर सिंह को उसका सदस्य नियुक्त किया। तत्पश्चात उसकी योग्यता एवं कार्य कुशलता से प्रसन्न होकर महाराणा ने उसे महद्राजसभा का सदस्य नियुक्त कर मनोहर सिंह को मेवाड़ का प्रथम श्रेणी सरदार घोषित किया ठाकुर मनोहर सिंह के जीवनकाल में उसके दोनों पुत्रों का स्वर्गवास हो गया था तदनुसार उस ने अपने छोटे भाई सार्दूल सिंह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।किन्तु शार्दुल सिंह की भी मृत्यु हो जाने के कारणउसके (सार्दुल सिंह) पुत्र सोहनसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया । सोहनसिंह के पश्चात उसका पुत्र अमर सिंह सरदारगढ़ का स्वामी बना ।
⚫राजदरबार में पद प्रतिष्ठा⚫
मेवाड़ राजदरबार में सरदारों को महाराणा की ओर से प्रदत्त विशिष्ट सम्मान को राहमरजाद कहा जाता था । यह सम्मान सरदार को उसके पूर्वजों द्वारा मेवाड़ राज्य को प्रदत्त बलिदान परक सेवाओं के बदले प्राप्त था। तदनुसार सरदारगढ के सामन्त की राहमरजाद अंतर्गत ठाकुर पांचवी बैठक राजगद्दी के सामने प्रथम पंक्ति में वैदेशिक सरदार की श्रेणी में तलवार बंदी के अवसर पर दो स्वर्ण आभूषण जुहार रूक्के में आडीयो - औला जुहार) बलेनो हाथी नाव की बैठक राज्य की ओर से परवानों सुप्रसाद शब्द का उल्लेख सोने की छड़ी, अडाणी, घोड़े को स्वर्ण आभूषण (दुमची,मोरा) ठिकाने में नाव सवारी की अनुमति शोभायात्रा में महाराणा के हाथी के हौदे की पिछली कुर्सी पर बैठने का अधिकार ताजिम, रसोडे की बैठक सीख का बिड़ा दरीखाने का बिड़ा कुंवर को सीख की पगड़ी बलेणा घोड़ा,सीख का सिरोपाव तलवारबंदी पर सिरोपाव तलवार आभूषण हाथी घोड़ा पांव में सोना मूहर्त की फाग पर गुलाल की थैली पालकी, पगड़ी मैं मांजा सवारी में कुँवर पौत्रो का आगे चलना , हवेली पर महाराणा द्वारा जुहार ( अभिवादन )प्रेषण, पगड़ी पर करणी बांधना, पगड़ी पर मोतियों की सर का आभूषण घोड़े का निशान - नगारा, दशहरे का सिरोपाव, त्यौहार पर अनुपस्थिति के दौरान राज्य की ओर से हवेली पर अणत, पवित्रे, मेरीये ( गन्ने) खांडे (काष्ट निर्मित तलवार ),शीतला सप्तमी की चौसर प्रेषित करने का सम्मान बांह पसाव , होकर की कलंगी शौक निवारणार्थ महाराणा का हवेली पर जाना, दीपावली की बीडी (पान), राजमहल में उपस्थित होने पर मास्टर ऑफ सेरेमनी का स्वागतार्थ पान का बीड़ा लेकर जाना एंव दरीखाने से पुनः विदा होने पर राजमहल के रायआंगन स्थल तक विदा करने जाना गोठ (दावत) के अवसर पर केसर पहुंचाना।
महाराणा सरदार के समक्ष हुक्कापान नही करते , सदैव हाथ जोड़कर बात करते ,गोठ में भोजन थाल के नीचे बाजोट नहीं रखते , दाढ़ी नहीं बांधते , यदि सरदार फर्श पर बैठे हो तो महाराणा पलंग,कुर्सी, कोंच आदि पर नहीं बैठते, सरदार पैदल हो तो महाराणा घोड़े पर सवार नहीं होते , आदि विशिष्ट सम्मान सरदारगढ के ठाकुर को प्राप्त थे । वर्तमान में लावा सरदारगढ़ के किले मे ठाकुर महिपाल सिंह डोडिया निवास करते हैं जो की ऐतिहासिक महत्व की विख्यात होटल का संचालन कर रहे हैं ।
जशवन्त सिंह डोडिया ठिकाना-कोटेला (सरदारगढ़ )