सोमवार, 22 जनवरी 2018

Dodia rajput sardargarh

सरदारगढ़ का संक्षिप्त इतिहास "
महाराणा लाखा के समय से मेंवाड में डोडिया राजपूतो को जागीरे मिलीं ।मेवाड़ मे बसने के बाद 13वीं पीढ़ी मे सरदारगढ़  (राजसमंद -मेवाड़ )पर डोडिया राजपूतो का शासन रहा । मेवाड़ मे बसने के बाद डोडिया राजपूत सरदारो की प्रमुख जानकारी इस प्रकार है ।

(1)ठाकुर धवल डोडिया ये शार्दुलगढ (काठियावाड़)के सिंहा डोडिया के पुत्र थे ।महाराणा लाखा की माता की द्वारिका यात्रा के समय कार्बो ने उनको घेर लिया, ऐसे समय पर धवल डोडिया के पिता सिंहा डोडिया ने उनको कार्बो से बचाया परंतु सिंहा डोडिया खुद वीरगति को प्राप्त हुए ।महाराणा लाखा ने सिंहा डोडिया के पुत्र कालू व धवल डोडिया को मेवाड़ बुलाया और  रतनगढ, नन्दराय, मसौदा आदि गाँवों की पांच लाख की जागीर दी ।महाराणा लाखा ने 1387ई  मे ठाकुर धवल डोडिया को उमराव बनाया । महाराणा लाखा की माता का दुबारा तीर्थ पर जाना हुआ तो महाराणा लाखा ने साथ मे धवल डोडिया को सुरक्षा खातिर भेजा ।इस बार छप्पर घाटा के हाकिम शेर खा ने हमला किया ।धवल डोडिया ने शेर खा को पराजित कर उसका  लावाजिमा छीन लिया ।महाराणा लाखा और गयासुदिन तुगलक के बिच हुए बदनोर के युद्ध मे ठाकुर धवल डोडिया अपने पुत्र हरू सहित वीर गति को प्राप्त हुए ।


Jashwant Singh Dodia tikana-kotela
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शनिवार, 20 जनवरी 2018

बुधवार, 17 जनवरी 2018


🌎 डोडिया राजपूत 🌎

मेवाड़ के इतिहास में सरदारगढ़ ठिकाने के सामन्तो की प्रमुख भूमिका रही है। सरदारगढ़ के स्वामी काठियावाड़ स्थित शार्दुलगढ के सिंह  डोडिया के वंशज एवं ठाकुर इनकी पदवी थी मेवाड़ के वैदेशिक सरदार जो  अन्य प्रदेशों से महाराणा की सेवा  मे आये थे, उनमें डोडिया वंश सबसे प्राचीन राजवंश था ।

🌱डोडिया वंश की उत्पत्ति🌱

एक प्राचीन मान्यतानुसार परशुराम द्वारा क्षत्रिय जाति का समूल नाश किये जाने के पश्चात पृथ्वी पर कोई वीर जाति शेष नहीं रही, जो वैदिक धर्म की रक्षा कर सके । चिन्तित ऋषि मुनियों ने क्षत्रिय वर्ण की पुर्नस्थापना के लिये एकत्रित होकर यज्ञ का आयोजन किया । तदनुसार शांडिल्य ऋषि ने यज्ञवेदी के चारो ओर कदली-स्तम्भ रोपकर यज्ञ सम्पूर्ण किया । इस प्रकार रोपे गये कदलीवृक्ष के डोडे (पुष्प)से एक साहसी वीर क्षत्रिय  पुरूष  का जन्म हुआ । उस पुरूष का नाम दीपंग रखा गया ।केले के डोडे (पुष्पकली)से उत्पन्न होने के के कारण कालान्तर में उसका वंश डोडिया कहलाया ।दीपंग विशिल साम्राज्य का स्वामी हुआ , जिसके राज्य का विस्तार सौराष्ट्र हिंगलाज काठियिवाड एवं समुद्र तक था ।मुल्तान उसके राज्य कि राजधिनी थी ।वृध्दावसाथा मे दीपंग अपने पुत्र पहकरण को राज्य सौंपकर स्वय भगवदशरण में बद्रिकाश्रम चला गया ।कालान्तर में उसके वंशज पदमसिंह के आधिपत्य से मुल्तान छीन जाने के बाद गुजरात काठियावाड में गिरनार जैतगढ़ तथा शार्दुलगढ उनकी राजधानीयाँ रही । अंत में शार्दुलगढ डोडिया वंश की प्रमुख राजधानी रही ।
शार्दुलगढ का  दुर्ग अत्यंत सुदृढ तथा सुरक्षित दुर्ग था , जिसका रक्षक बेचरा माता को माना गया है ।मान्यता है कि वह यवनो के आक्रमण होने  पर उनका सर्वनाश कर देती थी ।डोडिया वंश की सौगात एव मेवाड़ की सांस्कृतिक  धरोहर  शार्दुलगढ के राव जसकरन ने रावल को एक तलवार भेंट की स्वय बेचरा माता ने प्रसाद स्वरूप प्रदान की थी ।
इसी तलवार के प्रभाव से महाराणा हम्मीर सिंह ने चित्तौड़ राज्य पुनर्विजित किया तथा महाराणा प्रताप ने मुगलों से दीर्घकालीन संघर्ष  कर उन पर विजय प्राप्त की।प्रतिवर्ष आश्विन शुक्ला अष्टमी पर्यन्त नवरात्रि के दौरान इस तलवार का विधि विधान से पुजन किये जाने के पश्चात राज्य द्वारा नियुक्त सरदार राजमहल के अमरचौक में इसी तलवार से बकरे की बली तथा जनानी ड्योढ़ी के बाहर भैंस की बलि करता था ।
वर्तमान मे भी नवरात्रि के दौरान राजमहल मे इसी तलवार का पूजन विधि -विधान से किया जाता है । डोडिया शासक द्वारा प्रदत यह तलवार आज भी मेवाड़ की सांस्कृतिक धरोहर है ।

⬛डोडिया वंश एंव मेवाड़ के महाराणाः⬛

राणालाखा के शासनकाल  (1382-1418 ई,)मे महाराणा की माता सोलंकिनी द्वारिका यात्रा पर गयी ,उस दौरान मार्ग मे काबा लुटेरो ने मेवाड़ के रक्षादल पर आक्रमण किया तब शार्दुलगढ के  राव जसकरन का वंशज सिंह  डोडिया अपने पुत्रों कालू और धवल ने अपने ठिकाने शार्दुलगढ मे राजमाता का आतिथ्य -सत्कार तथा युद्ध में घायल सैनिको का इलाज करवाया । ततपश्वात राजमाता को द्वारिका यात्रा करवाकर डोडिया पुत्रों ने उन्हे मेवाड़  की सिमा तक सुरक्षित पहुँचाया । चित्तौड़ लौटकर राजमाता ने राणा लाखा को इस घटना की जानकारी दी, तदनुसार महाराणा ने धवल डोडिया को अपने राज्य मे बुलवाकर उसे रतनगढ नन्दराय ओर मसुदा सहित पांच लाख की जागीर देकर 1387 ई मे अपना सामन्त बनाया  ।महाराणा ने धवल को राजमाता सोलंकिनी की ,गया, यात्रा के दौरान भी उनके  साथ भेजा ।
महाराणा मोकल (1418-1433 ई)ओर नागौर के हाकिम फिरोज खां के मध्य जोताई ग्राम मे युद्ध हुआ , इस युद्ध मे महाराणा का घोड़ा मारा गया ।यहदेखकर धवल डोडिया का पौत्र सबल सिंह ने तुरंत अपना घोड़ा महाराणा की सेवा मे पेश किया ।तथा स्वयं शत्रुओ से लड़ता हुआ मारा गया ।


मांडू के सुल्तान गयासुदिन के सेनानायक जफर खां से महाराणा  रायमल  (1473-1509 ई) का युद्ध हुआ इस युद्ध मे धवल का प्रपौत्र किशन सिंह बडी बहादुरी से लडा महाराणा विक्रमादित्य के शासनकाल मे चित्तौड़ के व्दितीय शाके  (1531-1536 ई)मे गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह की चढ़ाई के दौरान किशनसिंह पौत्र भाण सुल्तान के विरूद्ध लडते हुए शहीद हो गया ।1557ई मे शेरशाह सुरी के के सेनापति हाजीखां पठान और राव मालदेव की संयुक्त सेना महाराणा  उदयसिंह से युद्ध हुआ,  इस युद्ध मे भाण का पुत्र भीम घायल हुआ ।चित्तौड़ पर अकबर की चढ़ाई 1557 ई के दौरान मेवाड़ के सरदारो ने भाण के पुत्र सांडा और रावत साहिबखान के माध्यम से संधिवार्ता की जो असफल रही , किन्तु जब युध्द प्रारंभ हुआ तो सांडा गम्भीरी नदी के पश्चिमी तट पर शाही सेना से बडी बहादुरी से लड़कर मारा गया ।
सांडा का उत्तराधिकारी भीम सिंह डोडिया प्रसिद्ध हल्दीघाटी युद्ध में  प्रताप के प्रमुख सहयोगी के रुप में मानसिंह के हाथी को मारकर वीरगति को प्राप्त हुआ।
महाराणा अमर सिंह और शहजादे खुर्रम के मध्य हुए संघर्ष में भीमसिंह के पौत्र जयसिंह ने वीरता का प्रदर्शन किया।
महाराणा जगत सिंह द्वितीय 1734 - 1751 ई, ने जयसिंह के प्रपौत्र सरदार सिंह को लावा ठिकाने की जहांगीर प्रदान की उसने लावे में दुर्ग का निर्माण करवाकर उसका नाम सरदारगढ़ रखा सरदार सिंह महाराणा जगत सिंह द्वितीय का विश्वास पात्र व्यक्ति था महाराणा ने पिछोला झील के मध्य निवास महल निर्माण की देखरेख पर सरदार सिंह को नियुक्त किया जिसे सरदार सिंह ने 35 माह में कुशलता से संपन्न किया 1746 ईस्वी में जगनिवास के प्रतिष्ठा मुहूर्त पर महाराणा ने उसे सिरोपाव आदि प्रदान कर सम्मानित किया जग निवास महल निर्माण की अवशिष्ट बची हुई सामग्री से सरदार सिंह ने पिछोला के दूसरे किनारे पर सरदारगढ की हवेली का निर्माण करवाया महाराणा भीमसिंह के शासनकाल 1778 1828 में लाल सिंह शक्तावत के पुत्र संग्राम सिंह ने लावासरदारगढ पर अधिकार कर सरदार सिंह के उत्तराधिकारी सामंत सिंह को बेदखल कर दिया तत्पश्चात महाराणा स्वरूप सिंह ने सामंत सिंह के पुत्र जोरावर सिंह की सेवा से प्रसन्न होकर 1855 ई में सरदारगढ पर उसका  अधिकार करवाकर उसे द्वितीय श्रेणी का सरदार बनाया जोरावर सिंह का उत्तराधिकारी मनोहर सिंह
डोडिया हुआ । महाराणा शंभूसिंह (1861-1874ई,)की अवयस्कता के दौरान शक्तावत , चत्रसिंह के सरदारगढ पर दावे के विषय मे रीजेन्सी कौंसिल ने निर्णय दिया कि लावा सरदारगढ पुनः शक्तावतों को दे  दिया जाए ।ठाकुर मनोहर सिंह ने इस निर्णय के विरुद्ध ए,जी, जी के पास अपिल कर ठिकाना छोड़ने से इन्कार कर दिया । तदनुसार ए.जी.जी.ने कौंसिल का निर्णय रद कर सरदारगढ पर मनोहर सिंह के अधिकार को बहाल रखा। महाराणा सज्जनसिंह के
शासनकाल  1874-1884 ई  इजलासखास कायम होने पर महाराणा ने मनोहर सिंह को उसका सदस्य नियुक्त किया। तत्पश्चात उसकी योग्यता एवं कार्य कुशलता से प्रसन्न होकर महाराणा ने उसे महद्राजसभा का सदस्य नियुक्त कर मनोहर सिंह को मेवाड़ का प्रथम श्रेणी सरदार  घोषित किया ठाकुर मनोहर सिंह के जीवनकाल में उसके दोनों पुत्रों का स्वर्गवास हो गया था तदनुसार उस ने अपने छोटे भाई सार्दूल सिंह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।किन्तु शार्दुल सिंह की भी मृत्यु हो जाने के  कारणउसके (सार्दुल सिंह) पुत्र सोहनसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया । सोहनसिंह के पश्चात उसका पुत्र अमर सिंह सरदारगढ़ का स्वामी बना ।

⚫राजदरबार में पद प्रतिष्ठा⚫



मेवाड़ राजदरबार में सरदारों को महाराणा की ओर से प्रदत्त विशिष्ट  सम्मान को राहमरजाद  कहा जाता  था । यह सम्मान  सरदार  को उसके पूर्वजों द्वारा मेवाड़ राज्य को प्रदत्त  बलिदान परक सेवाओं के बदले प्राप्त था। तदनुसार सरदारगढ   के सामन्त की राहमरजाद अंतर्गत ठाकुर पांचवी बैठक राजगद्दी के सामने प्रथम पंक्ति में वैदेशिक सरदार की श्रेणी में तलवार बंदी के अवसर पर दो स्वर्ण आभूषण जुहार रूक्के में आडीयो - औला  जुहार) बलेनो हाथी नाव की बैठक राज्य की ओर से परवानों सुप्रसाद शब्द का उल्लेख सोने की छड़ी, अडाणी, घोड़े को स्वर्ण आभूषण (दुमची,मोरा)  ठिकाने में नाव सवारी की अनुमति शोभायात्रा में महाराणा के हाथी के हौदे की पिछली कुर्सी पर बैठने का अधिकार ताजिम, रसोडे  की बैठक सीख का बिड़ा  दरीखाने का बिड़ा  कुंवर को सीख की  पगड़ी बलेणा घोड़ा,सीख का सिरोपाव तलवारबंदी पर सिरोपाव तलवार आभूषण हाथी घोड़ा पांव में सोना मूहर्त  की फाग पर गुलाल की थैली पालकी, पगड़ी मैं मांजा सवारी में कुँवर पौत्रो का आगे चलना , हवेली पर महाराणा द्वारा  जुहार  ( अभिवादन )प्रेषण, पगड़ी पर करणी  बांधना,  पगड़ी पर मोतियों की सर का आभूषण घोड़े का निशान - नगारा, दशहरे का सिरोपाव, त्यौहार पर अनुपस्थिति के दौरान राज्य की ओर से हवेली पर अणत,  पवित्रे, मेरीये ( गन्ने) खांडे (काष्ट निर्मित तलवार ),शीतला सप्तमी की चौसर प्रेषित करने का सम्मान बांह पसाव , होकर की कलंगी शौक निवारणार्थ महाराणा का हवेली पर जाना, दीपावली की बीडी (पान), राजमहल में उपस्थित होने पर मास्टर  ऑफ सेरेमनी  का स्वागतार्थ पान का बीड़ा लेकर जाना एंव दरीखाने से पुनः विदा होने पर राजमहल के रायआंगन स्थल तक विदा करने जाना गोठ (दावत) के अवसर पर  केसर पहुंचाना।

महाराणा सरदार  के समक्ष  हुक्कापान नही करते , सदैव  हाथ जोड़कर बात  करते ,गोठ में भोजन थाल के नीचे बाजोट नहीं रखते ,  दाढ़ी नहीं बांधते , यदि  सरदार फर्श पर बैठे हो तो महाराणा पलंग,कुर्सी, कोंच आदि पर नहीं बैठते,  सरदार पैदल हो तो महाराणा घोड़े पर सवार नहीं   होते , आदि विशिष्ट सम्मान सरदारगढ के ठाकुर को प्राप्त थे । वर्तमान में लावा सरदारगढ़ के किले मे  ठाकुर महिपाल सिंह डोडिया निवास करते हैं जो की ऐतिहासिक महत्व की विख्यात  होटल का  संचालन कर रहे हैं ।





जशवन्त सिंह डोडिया ठिकाना-कोटेला (सरदारगढ़ )

बुधवार, 10 जनवरी 2018



आगरा का किला 


यह भारत का सबसे महत्वपूर्ण किला है। भारत के मुगल सम्राट बाबरहुमायुंअकबरजहांगीरशाहजहां व औरंगज़ेब यहां रहा करते थे, व यहीं से पूरे भारत पर शासन किया करते थे। यहां राज्य का सर्वाधिक खजाना, सम्पत्ति व टकसाल थी। यहाँ विदेशी राजदूत, यात्री व उच्च पदस्थ लोगों का आना जाना लगा रहता था, जिन्होंने भारत के इतिहास को रचा।

इतिहाससंपादित करें

यह मूलतः एक ईंटों का किला था, जो चौहान वंश के राजपूतों के पास था। इसका प्रथम विवरण 1080 ई. में आता है, जब महमूद गजनवी की सेना ने इस पर कब्ज़ा किया था। सिकंदर लोदी (1487-1517), दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तान था, जिसने आगरा की यात्रा की,तथा इसने इस किले की मरम्म्त १५०४ ई० में करवायी व इस किले में रहा था तथा इसे १५०६ इश्वी में राजधानी बनाया। उसने देश पर यहां से शासन किया,। उसकी मृत्यु भी, इसी किले में 1517 में हुई थी, जिसके बाद, उसके पुत्र इब्राहिम लोदी ने गद्दी नौ वर्षों तक संभाली, तब तक, जब वो पानीपत के प्रथम युद्ध (1526) में निपट नहीं गया। उसने अपने काल में, यहां कई स्थान, मस्जिदें व कुएं बनवाये।
पानीपत के बाद, मुगलों ने इस किले पर भी कब्ज़ा कर लिया, साथ ही इसकी अगाध सम्पत्ति पर भी। इस सम्पत्ति में ही एक हीरा भी था, जो कि बाद में कोहिनूर हीरा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तब इस किले में इब्राहिम के स्थान पर बाबर आया। उसने यहां एक बावली बनवायी। सन 1530 में, यहीं हुमायुं का राजतिलक भी हुआ। हुमायुं इसी वर्ष बिलग्राम में शेरशाह सूरी से हार गया, व किले पर उसका कब्ज़ा हो गया। इस किले पर अफगानों का कब्ज़ा पांच वर्षों तक रहा, जिन्हें अन्ततः मुगलों ने 1556 में पानीपत का द्वितीय युद्ध में हरा दिया।
इस की केन्द्रीय स्थिति को देखते हुए, अकबर ने इसे अपनी राजधानी बनाना निश्चित किया, व सन 1558 में यहां आया। उसके इतिहासकार अबुल फजल ने लिखा है, कि यह किला एक ईंटों का किला था, जिसका नाम बादलगढ़ था। यह तब खस्ता हालत में था, व अकबर को इसि दोबारा बनवाना पड़ा, जो कि उसने लाल बलुआ पत्थर से निर्मण करवाया। इसकी नींव बड़े वास्तुकारों ने रखी। इसे अंदर से ईंटों से बनवाया गया, व बाहरी आवरण हेतु लाल बलुआ पत्तह्र लगवाया गया। इसके निर्माण में चौदह लाख चवालीस हजार कारीगर व मजदूरों ने आठ वर्षों तक मेहनत की, तब सन 1573 में यह बन कर तैयार हुआ।
अकबर के पौत्र शाहजहां ने इस स्थल को वर्तमान रूप में पहुंचाया। यह भी मिथक हैं, कि शाहजहां ने जब अपनी प्रिय पत्नी के लिये ताजमहल बनवाया, वह प्रयासरत था, कि इमारतें श्वेत संगमर्मर की बनें, जिनमें सोने व कीमती रत्न जड़े हुए हों। उसने किले के निर्माण के समय, कई पुरानी इमारतों व भवनों को तुड़वा भी दिया, जिससे कि किले में उसकी बनवायी इमारतें हों।
अपने जीवन के अंतिम दिनों में, शाहजहां को उसके पुत्र औरंगज़ेब ने इस ही किले में बंदी बना दिया था, एक ऐसी सजा, जो कि किले के महलों की विलासिता को देखते हुए, उतनी कड़ी नहीं थी। यह भी कहा जाता है, कि शाहजहां की मृत्यु किले के मुसम्मन बुर्ज में, ताजमहल को देखेते हुए हुई थी। इस बुर्ज के संगमर्मर के झरोखों से ताजमहल का बहुत ही सुंदर दृश्य दिखता है।
यह किला १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय युद्ध स्थली भि बना। जिसके बाद भारत से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का राज्य समाप्त हुआ, व एक लगभग शताब्दी तक ब्रिटेन का सीधे शासन चला। जिसके बाद सीधे स्वतंत्रता ही मिली।

खाकासंपादित करें


मुसम्मन बुर्ज के अंदर का दृश्य, जहां शाहजहां ने अपनी जीवन के अंतिम सात वर्ष ताजमहल को निहारते हुए, अपने पुत्र व उत्तराधिकारी औरंगज़ेब की नज़रबंदी में बिताये।
आगरा के किले को वर्ष 2004 के लिये आग़ाखां वास्तु पुरस्कार दिया गया था, व भारतीय डाक विभाग ने 28 नवंबर,2004 को इस महान क्षण की स्मृति में, एक डाकटिकट भी निकाला था।
इस किले का एक अर्ध-वृत्ताकार नक्शा है, जिसकी सीधी ओर यमुना नदी के समानांतर है। इसकी चहारदीवारी सत्तर फीट ऊंची हैं। इसमें दोहरे परकोटे हैं, जिनके बीछ बीच में भारी बुर्ज बराबर अंतराल पर हैं, जिनके साथ साथ ही तोपों के झरोखे, व रक्षा चौकियां भी बनी हैं। इसके चार कोनों पर चार द्वार हैं, जिनमें से एक खिजड़ी द्वार, नदी की ओर खुलता है।
इसके दो द्वारों को दिल्ली गेट एवं लाहौर गेट कहते हैं (लाहौर गेट को अमरसिंह द्वार भी कहा जाता है)।

अलंकृत स्तंभ
शहर की ओर का दिल्ली द्वार, चारों में से भव्यतम है। इसके अंदर एक और द्वार है, जिसे हाथी पोल कहते हैं, जिसके दोनों ओर, दो वास्तवाकार पाषाण हाथी की मूर्तियां हैं, जिनके स्वार रक्षक भी खड़े हैं। एक द्वार से खुलने वाला पुर, जो खाई पर बना है, व एक चोर दरवाजा, इसे अजेय बनाते हैं।
स्मारक स्वरूप दिल्ली गेट, सम्राट का औपचारिक द्वार था, जिसे भारतीय सेना द्वारा (पैराशूट ब्रिगेड) हेतु किले के उत्तरी भाग के लिये छावनी रूप में प्रयोग किया जा रहा है। अतः दिल्ली द्वार जन साधारण हेतु खुला नहीं है। पर्यटक लाहौर द्वार से प्रवेश ले सकते हैं, जिसे कि लाहौर की ओर (अब पाकिस्तान में) मुख होने के कारण ऐसा नाम दिया गया है।
स्थापत्य इतिहास की दृष्टि से, यह स्थल अति महत्वपूर्ण है। अबुल फज़ल लिखता है, कि यहां लगभग पाँच सौ सुंदर इमारतें, बंगाली व गुजराती शैली में बनी थीं। कइयों को श्वेत संगमर्मर प्रासाद बनवाने हेतु ध्वस्त किया गया। अधिकांश को ब्रिटिश ने 1803 से 1862 के बीच, बैरेक बनवाने हेतु तुड़वा दिया। वर्तमान में दक्षिण-पूर्वी ओर, मुश्किल से तीस इमारतें शेष हैं। इनमें से दिल्ली गेट, अकबर गेट व एक महल-बंगाली महल – अकबर की प्रतिनिधि इमारतें हैं।
अकबर गेट अकबर दरवाज़ा को जहांगीर ने नाम बदल कर अमर सिंह द्वार कर दिया था। यह द्वार, दिल्ली-द्वार से मेल खाता हुआ है। दोनों ही लाल बलुआ पत्थर के बने हैं।
बंगाली महल भी लाल बलुआ पत्थर का बना है, व अब दो भागों -- अकबरी महल व जहांगीरी महल में बंटा हुआ है।
यहां कई हिन्दू व इस्लामी स्थापत्यकला के मिश्रण देखने को मिलते हैं। बल्कि कई इस्लामी अलंकरणों में तो इस्लाम में हराम (वर्जित) नमूने भी मिलते हैं, जैसे—अज़दहे, हाथी व पक्षी, जहां आमतौर पर इस्लामी अलंकरणों में ज्यामितीय नमूने, लिखाइयां, आयतें आदि ही फलकों की सजावट में दिखाई देतीं हैं।

आगरा किले का भीतरी विन्यास और स्थलसंपादित करें


खास़ महलl.

जहाँगीरी महल

मीना मस्जिद शिलालेख

जहाँगीर का सिंहासन
  • अंगूरी बाग - ८५ वर्ग मीटर, ज्यामितिय प्रबंधित उद्यान
  • दीवान-ए-आम - में मयूर सिंहासन या तख्ते ताउस स्थापित था इसका प्रयोग आम जनता से बात करने और उनकी फरयाद सुनने के लिये होता था।
  • दीवान-ए-ख़ास - का प्रयोग और उसके उच्च पदाधिकारियों की गोष्ठी और मंत्रणा के लिये किया जाता था,जहाँगीर का काला सिंहासन इसकी विशेषता थी
  • स्वर्ण मंडप - बंगाली झोंपड़ी के आकार की छतों वाले सुंदर मंडप
  • जहाँगीरी महल - अकबर द्वारा अपने पुत्र जहाँगीर के लिये निर्मित
  • खास महल - श्वेत संगमरमर निर्मित यह महल, संगमरमर रंगसाजी का उत्कृष्ट उदाहरण है
  • मछली भवन - तालाबों और फव्वारों से सुसज्जित, अन्त:पुर (जनानखाने) के उत्सवों के लिये बड़ा घेरा
  • मीना मस्जिद- एक छोटी मस्जिद
  • मोती मस्जिद - शाहजहाँ की निजी मस्जिद
  • मुसम्मन बुर्ज़ - ताजमहल की तरफ उन्मुख आलिन्द (छज्जे) वाला एक बड़ा अष्टभुजाकार बुर्ज़
  • नगीना मस्जिद - आलिन्द बराबर में ही दरबार की महिलाओं के लिये निर्मित मस्जिद, जिसके भीतर ज़नाना मीना बाज़ार था जिसमें केवल महिलायें ही सामान बेचा करती थी।
  • नौबत खाना - जहाँ राजा के संगीतज्ञ वाद्ययंत्र बजाते थे।
  • रंग महल - जहाँ राजा की पत्नी और उपपत्नी रहती थी।
  • शाही बुर्ज़ - शाहजहाँ का निजी कार्य क्षेत्र
  • शाहजहाँ महलl - शाहजहाँ द्वारा लाल बलुआ पत्थर के महल के रूपान्तरण का प्रथम प्रयास
  • शीश महल - शाही छोटे जड़ाऊ दर्पणों से सुसज्जित राजसी वस्त्र बदलने का कमरा

अन्य उल्लेखनीय तथ्यसंपादित करें

  • आगरा के किले को, इससे अपेक्षाकृत बहुत छोटे दिल्ली के लाल किले से नहीं भ्रमित किया जाना चाहिये। मुगलों ने दिल्ली के लाल किले को कभी किला नहीं कहा, बल्कि लाल हवेली कहा है। भारत के प्रधान मंत्री यहां की प्राचीर से 15 अगस्त को, स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर, प्रति वर्ष, देश की जनता को सम्बोधित करते हैं।
  • सर अर्थर कॉनन डायल, प्रसिद्ध अंग्रेज़ी उपन्यास लेखक के शेर्लॉक होम्स रहस्य उपन्यास द साइन ऑफ फोर में, आगरा के किले का मुख्य दृश्य है।
प्रसिद्ध मिस्री पॉप गायक हीशम अब्बास के अलबम हबीबी द में आगरा का किला दिखाया गया है।
मिर्ज़ा राजे जय सिंह के संग “पुरंदर संधि” के अनुसार, शिवाजी आगरा 1666 में आये, व औरंगज़ेब से दीवान-ए-खास में मिले। उन्हें अपमान करने हेतु, उनके स्तर से कहीं नीचा आसन दिया गया। वे अपमानित होने से पूर्व ही, दरबार छोड़कर चले गये। बाद में उन्हें जयसिंह के भवन में ही 12 मई,1666 को नज़रबंद किया गया। उनकी एक ओजपूर्ण अशवारोही मूर्ति, किले के बाहर लगायी गयी है।

यह किला मुगल स्थापत्य कला का एक आदर्श उदाहरण है। यहां स्पष्ट है, कि कैसे उत्तर भारतीय दुर्ग निर्माण, दक्षिण भारतीय दुर्ग निर्माण से भिन्न होता था। दक्षिण भारत के अधिकांश दुर्ग, सागर किनारे निर्मित हैं।
एज ऑफ ऐम्पायर – 3 के विस्तार पैक एशियन डाय्नैस्टीज़, में आगरा के किले को भारतीय सभ्यता के पांच अजूबों में से एक दिखाया गया है, जिसे जीतने के बाद ही, कोई अगले स्तर पर जा सकता है। एक बार बनने के बाद, यह खिलाड़ी को सिक्कों के जहाज भेजता रहता है। इस वर्ज़न में कई अन्य खूबियां भी हैं।

चित्र दीर्घासंपादित करें







भीम सिंह डोडिया

Dodia rajput sardargarah THAKUR BHIM SINH DODIA > दूसरा सन्धि प्रस्ताव :- दूत :- कुंवर मानसिंह कछवाहा (आमेर) जून, 1573 ...